तुम्हारा ही रचाया संसार है
पहली नज़र का प्यार नहीं था
धीरे-धीरे परवान चढ़ा था
आँखों से बातें होती थीं
तुम नज़रे मुझ पर टिकाए
बहुत कुछ कहा था
कुछ-कुछ सुना था
फिर, ख़ामोशी थी
अगले मिलन की
गोकुल की गलियों में
मैं तुम्हें चुपके से निहार लेती थी
प्रेम की डोर में बंधा था
मन तुम्हारी हर अनकहे को
मान लेता था
तुम्हरी मानिनी थी मैं
नहीं! समझ पाई , कान्हा !
प्रीत की रीत को
जिन्हे पाया होता है
उसे खोने की रीत को
कल की शाम
कोयल की कूक ने
मन में हूक ऐसी उठाई
चल पड़ी मैं, गागर लिए
जमुना के किनारे
तुम्हारी बांसुरी की टेर
मेरे मन में बजती रही
और मैं कदम्ब की डाल पकड़े
झूमती रही देर तक
आंखे बंद किए,
कहीं से तुम आ जाओ !
फिर, अपनी हथेली
मेरे आँखों पर रख, पूछो
मीत! बताओ मैं कौन ?
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