वही तुम्हारा गांव 
वही पीपल की छाँव 
कुछ याद आया 
तुम्हारा गांव 
कुछ नहीं था 
प्रेम के बोल थे 
सुबह पड़ोस की बुआ 
धुआं देख चली आती 
आग मांगने के बहाने 
चाय की चुस्की के साथ 
घर-घर की खबर दे जाती 
कुछ हमारी भी ले जाती 
दोपहर ढले 
घोनसारे की ओर  जाती हुई 
चना-चबेना 
कुछ भुना हुआ 
इधर भी देती और 
उधर भी ले जाती। 
चाय की चुस्की के साथ 
घर-घर की खबर दे जाती 
कुछ हमारी भी ले जाती 
शाम हुई 
झुरमुठ की ओर छिपती हुई 
चाँद-सितारे को 
निहारते हुए और 
कभी इधर भी देखती 
कभी इधर भी देखती !
बहुत बढिया।
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