बहुत कुछ दिखता
बहुत कुछ नहीं भी
पर भीतर बहुत कुछ
आलोड़ित होता रहता है
खुद से सवाल
खुद को जवाब देना
सरल नहीं होता है
जब भी
कर्ण छला जाता है
केशव! तुम भी
उसमें शामिल होते हो!
क्या कहूं? फिर, तुमसे
मेरे सामने सिर्फ,
सवाल होतें हैं ?
क्यों किसी को इतना भाग्यहीन बनाते हो?
कि वह पाकर भी खाली हाथ
और दे कर भी!
कोई नहीं होता है
न यश, न कीर्ति!
सब कुछ समर्पित करने के बाद भी!
तुम उसे कुछ नहीं दे पाते?
ये कैसी विडम्बना है!
उद्वेलित करता है मन को
कभी तो मान रख लेते
उसका भी!
जानती हूँ
वह समकक्ष नहीं किसी के
फिर भी, उसकी आत्मा भी तो
तड़पती होगी
सब कुछ समर्पित करने के बाद
वह नितांत अकेला और खाली हाथ है
हे केशव!
ऐसा क्यों होता है ?
यह प्रश्न अब भी शेष है ?
बहुत कुछ नहीं भी
पर भीतर बहुत कुछ
आलोड़ित होता रहता है
खुद से सवाल
खुद को जवाब देना
सरल नहीं होता है
जब भी
कर्ण छला जाता है
केशव! तुम भी
उसमें शामिल होते हो!
क्या कहूं? फिर, तुमसे
मेरे सामने सिर्फ,
सवाल होतें हैं ?
क्यों किसी को इतना भाग्यहीन बनाते हो?
कि वह पाकर भी खाली हाथ
और दे कर भी!
कोई नहीं होता है
न यश, न कीर्ति!
सब कुछ समर्पित करने के बाद भी!
तुम उसे कुछ नहीं दे पाते?
ये कैसी विडम्बना है!
उद्वेलित करता है मन को
कभी तो मान रख लेते
उसका भी!
जानती हूँ
वह समकक्ष नहीं किसी के
फिर भी, उसकी आत्मा भी तो
तड़पती होगी
सब कुछ समर्पित करने के बाद
वह नितांत अकेला और खाली हाथ है
हे केशव!
ऐसा क्यों होता है ?
यह प्रश्न अब भी शेष है ?
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