कला का सर्वोच्च ध्येय सौंदर्य- भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन
वरिष्ठ भरतनाट्यम नृत्यंागना सरोजा
वैद्यनाथन इस नृत्य
की पर्याय के
रूप में पहचानी
जाती हैं। उन्होंने राजधानी दिल्ली
में कुछ दशक
पहले गणेश नाट्यालय
की स्थापना की
थी। उनके इस
डंास स्कूल से
न सिर्फ भारत
की ,बल्कि विदेशों
की लड़कियां नृत्य
सीखने आती हैं।
आज की तारीख
में उनके नाट्यालय
से करीब डेढ़
सौ शिष्याओं को
अरंगेत्रम की उपाधि दिया
जा चुका है।
शास्त्रीय नृत्य के बारे
में विदुषी सरोजा
वैद्यनाथन का कहना
है कि देश
के पूरब, पश्चिम,
उŸार और
दक्षिण हिस्से में अलग-अलग नृत्य
शैलियां प्रचलित हैं। सभी
नृत्य विधा की
अपनी नृत्य शैली
और संगीत है।
पर सबमें विभिन्नता
होते हुए भी
काफी समानता है।
क्योंकि, इन सभी
का एक शास्त्र
एक-नाट्य शास्त्र
है। ढ़ाई हजार
साल पहले लिखे
गए, इस ग्रंथ
के हर विषय
पुराने हैं फिर
भी, उनमें नयापन
है। नाट्य शास्त्र
के बŸाीस
अध्यायों में सोलह
कलाओं का विशद
वर्णन है। यह
भी महत्वपूर्ण है
कि सभी नृत्य
विधाएं मंदिरों से जुड़ी
हुईं थीं। इसलिए,
सभी को मंदिर
शैली की नृत्य
परंपराएं भी कहा
जाता है।
पद्मश्री और संगीत
नाटक अकादमी से
सम्मानित नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन
को इस वर्ष
मध्य प्रदेश सरकार
की ओर से
प्रतिष्ठित कालीदास सम्मान से
सम्मानित किया जा
रहा है। संस्कृति
विभाग की ओर
से यह समारोह
भोपाल में उन्नीस
मार्च को आयोजित
है। नृत्यांगना सरोजा
वैद्यनाथन अपनी बात
को जारी रखते
हुए, आगे कहती
हैं कि मंदिरों
में नृत्य करने
वाली देवदासियां ज्यादातर
शास्त्र में पारंगत,
कला में शिक्षित
और सुसंस्कृत हुआ
करती थीं। वह
मंदिर में देवताओं
की सेवा नृत्य
के जरिए करती
थीं। देवदासियों के
इस नृत्य को
देवदासी अट्टम कहा जाता
था। धीरे-धीरे
इस भाव, राग
और तालम पर
आधारित इस नृत्य
का नाम भरतनाट्यम
पड़ा।
भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन
नृत्य के बारे
में बताते हुए,
कहती हैं कि
शास्त्रीय नृत्य में नवरसों
का समागम होता
है। श्रृंगार, हास्य,
करूण, रौद्र, वीर,
रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत
एवं शांत रसों
में भाव से
रस की उत्पŸिा होती
है। भरतनाट्म में
वाचिकाभिनय की जगह
संगीत की प्रधानता
होती है। गायक
या गायिका गीत
के बोल को
लय के अनुरूप
बांधता है। उसी
के अनुसार दुख
या खुशी का
समां संगत कलाकार
वायलिन या बांसुरी
की धुन पर
या मृदंगम पर
ताल पेश करते
हैं। गीत, धुन
और ताल की
इस संगम पर
हम अभिनय करते
हैं। हम कथा-वस्तु के हिसाब
से अभिनय करते
हैं। मान लीजिए
कि हमें किसी
पागल नायक के
भाव को पेश
करना है तो
उसकी मुख मुखमुद्रा
के साथ उसकी
हंसी का अंदाज
अलग होगा। उसकी
हंसी में हास्य
रस के बजाय
रौद्र या वीभत्स
रस को प्रदर्शित
करना होगा।
वह आगे बताती
हैं कि उदाहरण
के तौर पर
जयदेव की ‘अष्टपदी‘-‘याहि माधव
याहि केशव‘ पर
अभिनय का एक
पीस करना चाहते
हैं। ऐसे उस
पेशकश में किसी
अन्य शास्त्रीय नृत्य
शैली से हमारी
हस्तमुद्राओं, भंगिमाओं, स्टेप्स और
वेशभूषा में फर्क
हो सकता है।
पर इसका केंद्रीय
भाव राधा को
खंडिता नायिका के रूप
में चित्रित करना
है, जो हर
नृत्य शैली में
लगभग एक सी
होगी।
भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन
कहती हैं कि
मैं उŸार
भारत में रहती
हूं, इसलिए दक्षिण
के रचनाकारों के
साथ-साथ मैंने
उŸार भारत
के कवियोें को
अपने नृत्य रचनाओं
का आधार बनाया।
मैंने सूरदास, तुलसीदास,
ज्ञानेश्वर, ललेश्वरी की रचनाओं
पर अनेक नृत्य
रचनाएं की, जिन्हें
लोगों ने पसंद
किया। हालांकि, कला
के प्रति हमारे
समाज में काफी
जागृति आई है।
यह विजुअल आर्ट
है, इसमें नई
संभावनाओं को चित्रित
करने की क्षमता
है। मैंने आज
के दौर में
महिलाओं के सशक्तिकरण,
बच्चों के शोषण
और अन्य सामाजिक
समस्याओं को भी
नृत्य में शामिल
करने की कोशिश
की है।
नृत्यांगना
और गुरू सरोजा
वैद्यनाथन अपने कैरियर
के शुरूआती दिनों
की याद ताजा
करते हुए, बताती
हैं कि चालीस
या पचास के
दशक में नृत्य
के प्रति लोगों
की मानसिकता संकुचित
थी। मेरे परिवार
के कई सदस्य
प्रशासनिक सेवाओं में थे।
कला के मामले
में उन सबका
दृष्टिकोण संगीत सीखने तक
सीमित था। लेकिन,
शुरू से ही
मेरा झुकाव संगीत
की अपेक्षा नृत्य
के प्रति अधिक
रहा। इसलिए मैं
गुरू कमला लक्ष्मण
से नृत्य सीखने
लगी। पंद्रह वर्ष
की उम्र में
अभिनय और बाॅडी
मूवमेंट पर अच्छी
पकड़ हो गई
और उसी दौरान
मैंने अपना पहला
परफाॅर्मेंस दिया। हालांकि मेरे
पिता को मेरा
नृत्य करना पसंद
नहीं था। लेकिन
, मेरी प्रतिभा और नृत्य
के प्रति लगन
को देखकर उन्होंने
मुझे कभी रोका
नहीं।
वह अपने अतीत
में झांकते हुए,
कहती हैं कि
मेरे पति मुझे
हमेशा प्रोत्साहित किया
करते थे। शुरूआत
में उन्हीं की
वजह से मैंने
चेरिटेबल परफाॅर्मेंस देना शुरू
किया। फिर भागलपुर
में कथक स्कूल
की नींव रखी।
कुछ समय बाद
पति का तबादला
दिल्ली हो गया,
जहां मैं प्रोफेशनल
आर्टिस्ट बन गई।
नृत्य एक साधना
है। इसे आत्म
आनंद और आत्म
संतोष के लिए
करना बेहतर है।
प्रदर्शन कलाओं से पैसे
कमाने की चाह
रखना उचित नहीं
है। ऐसा नृत्यंागना
सरोजा वैद्यनाथन मानती
हैं। वह कहती
हैं कि आज
कल के युवाओं
में जल्दीबाजी नजर
आती है। वह
जल्दी से जल्दी
नाम, यश और
पैसा कमाना चाहते
हैं, जो इतना
आसान नहीं होता
है। मेरे पास
एक-दो महीने
नृत्य सीखने के
बाद ही पेरेंट्स
पूछने लगते हैं
कि अरंगेत्रम कब
होगा? मैं ऐसे
पेरेंट्स से कहती
हूं कि कम-से-कम
आपको पंाच-छह
साल तक इंतजार
करना होगा। यह
तो तपस्या का
मार्ग है। कला
का संसार तो
अथाह सागर है।
इसे लंबे समय
तक रियाज से
तन-मन में
बसाया जाता है।
जब इसकी खुशबू
आर्टिस्ट के शरीर
में समा जाता
है, तब वह
अपने आस-पास
को सुवासित करता
है, जिससे परिवार
ही नहीं पूरा
समाज लाभान्वित होता
है।
आज बस इतना
ही
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