तुम ही थे
सुबह सूरज के गुलाबी रंग को
देख, मन हुआ
आज गुलाब की एक कलि
सजा लेंगे बालों में
लेकिन, आषाढ़ के ये काले बादल
डरा देते हैं
चमक-दमक कर
यूँ मन मानता कहाँ?
मनाना पड़ता है
आज तो
तुम्हारे आंगन रौनक है
जिसने जो माँगा
उसे तुमने वो दिया
पर, क्या करूं
मुझे मांगना नहीं आता
तुमने जो दिया
उसे स्वीकारना आता है
यह तुम्हें पता है
सागर की लहरों ने
गागर भर-भर उलीच दिया
रथ में सवार तुम
किस-किस को लुभा गए
तुम जानते हो ,
माधव!
क्यों?
उदास है मेरा मन,
क्यों नहीं लगाए हैं
मैंने गुलाब की कलि
अपने केश में!
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