Popular Posts

Thursday, June 19, 2025

#आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी/चर्चित पुस्तक ‘चंदन किवाड़-संस्कृति के आंगन में खुलती है!

                                               #आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी

                          चर्चित पुस्तक ‘चंदन किवाड़-संस्कृति के आंगन में खुलती है!










प्रतिष्ठित गायिका मालिनी अवस्थी जी की पुस्तक ‘चंदन किवाड़ गुइयां दरवजवा मैं ठाढ़ी रहू‘ को वाणी प्रकाशन ने  प्रकाशित किया है। पुस्तक का कलेवर और इन बाॅक्सिंग बहुत सुंदर है। इस पुस्तक के लिए कई महान हस्तियों ने स्वस्तिकामना की है। इनमें लेखिका मालिनी अवस्थी को कहानीकार सूर्यबाला, लेखक यतींद्र मिश्र, बांसुरीवादक पंडित हरिप्रसाद चैरसिया, हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक पंडित साजन मिश्र, लेखक डाॅ विक्रम संपत जैसे महानुभावों का आशीर्वचन मिला है। सभी ने बहुत संुदरता और सरलता से मालिनी जी के व्यक्तित्व, कृतित्व और कला की सराहना की है। 

इस पुस्तक के आरंभ में ‘मेरी बात‘ के जरिए मालिनी अवस्थी जी ने लिखा है कि अपने लोकगीतों की पोटली थामे, मैं गांव गांव घूमी हूं, कस्बे, नगर, महानगर, देस परदेस, सता समन्दर पार! कलाकार का जीवन यायावर सा होता है। आज यहां, तो कल वहां! 
यह एक सहज यथार्थ है। यह बात सच है और इसी तरह पूरी किताब में सहजता की खुशबू और शीतलता की अनुभूति है। इस किताब को पढ़ते हुए, मालिनी जी की जीवन यात्रा, उनके संघर्ष, जिसे वह कभी संघर्ष के तौर पर बयान नहीं करती हैं। सहज कथ्य के तौर पर लिखती हैं। पर आमतौर पर यह स्त्री के लिए एक तरह का संघर्ष ही होता है। क्योंकि, परिवार, रिश्ते, बच्चे, करियर, यात्राएं, सफलता और बहुत कुछ। उनकी इस लेखनी में कहीं भी बड़बोलापन या ग्लैमर नहीं है। उन्होंने बहुत स्पष्ट तरीके से अपनी बातों को रखा है। जैसे वह आज के सोशल मीडिया में कभी कार्यक्रम पेश करते, कभी लोगों से मिलते, कभी यात्रा करतीं नजर आतीं हैं, वैसे ही सरल तरीके से उन्होंने अपनी बातों को शब्दों में पिरोया है।
यह किताब को पढ़ते हुए, कभी कभी यह आत्मकथ्यात्मक लगी तो कभी संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं को सहेजती हुई, ग्रंथ सी लगी। यह उनकी वर्षों की कला यात्रा और अनुभव का एक संग्रह भी लगा। उन्होंने सबसे बड़ी बात की पुस्तक लिखने में जल्दीबाजी नहीं की है। उन्होंने उम्र और जीवन के अनुभव की परिपक्वता को जीते हुए, दास्तानों को जोड़ा है। इसलिए, इसमें व्यक्ति के इर्द गिर्द का परिवेश बहुत सघनता से शामिल हुआ है। इसलिए, किताब को एक बार हाथ में लेने के बाद रोमांच इस तरह हावी हो जाता है कि पाठक इसे पूरा पढ़ लेना चाहता है। क्योंकि अध्याय बहुत लंबे नहीं हैं। पर उनमें दर्ज की गई बातें बहुत गहरी हैं। जो पाठक को संवेदनाओं से जोड़ती है। 
लेखिका मालिनी लिखती हैं कि कुछ भी कहिए, ससुराल का आनंद अलग ही होता है। ससुराल की अपनी मर्यादा है, शिष्टाचार है। जीवन सुख से जीने का महामंत्र यही है कि इन वर्जनाओं को बंधन नहीं, संस्कार समझ अंगीकृत करें, मन की सारी उलझी गांठें बहुत सरलता से सुलझ जाएंगीं। 
पुस्तक को पढ़ते हुए, भारतीय कला, लोक, लोक कला, कलाकार, गुरु, गुरु की भूमिका व दायित्व, परंपरा, कला के उद्देश्य, कलाकारों के संघर्ष, लोक परंपरा, पास-पड़ोस, अतिथियों, संबंधों को निभाने का सलीका, हर चीज से पाठक जुड़ता जाता है। वह अपने गुरु के बारे में बताती हैं। अपनी मां और पिता के बारे में चर्चा करती हैं। लोक जीवन में परंपराओं के महत्व की चर्चा करती हैं। उनके घर में काम करने वाले लोगों से भी पाठक जुड़ जाता है। इतना ही नहीं, हर प्रसंग को गीत या ठुमरी या दादरा या भजन से जिस तरह जोड़ा है। वह कला में भीतर तक वह स्वयं किस तरह भींगी हुई हैं, यह दर्शाता है। 
वह लिखती हैं कि हमारा दर्शन ही है ‘सत्यं श्विम् संुदरम्‘ अर्थात् ‘सत्य सुंदर है और कल्याण‘। हमारा दर्शन, हमारी संस्कृति, हमारी कला, हमारा साहित्य, सभी में श्रृंगार बोध है, प्रेम श्रंृगार की अनिवार्यता है, अपने इष्ट प्रभु से प्रेम, पुरुष का स्त्री या स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम, श्रंृंगार वह सोपान है, जिस पर चलकर इन्सान अध्यात्म और भक्ति अंततः मुक्ति के द्वार तक पहंुुच जाता है। 
कला और कलाकार के संदर्भ में वह लिखती हैं कि कला आध्यात्मिक आनंद की साधना का चरमोत्कर्ष है, कला आत्मा-परमात्मा का मिलन है, किंतु मेरी समझ में कला संप्रेषण की वह शक्ति है, जो लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे उदात्त ऊंचे स्थान पर पहुंचा दे, जहां मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। व्यक्ति ‘स्व‘ से निकलकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ के भाव से जुड़ सके। 

एक अध्याय में वह लिखती हैं कि कला में प्रभु का वास है। इसलिए प्रत्येक कलाकार की कलायात्रा असाधारण परीक्षा मांगती है, असाधारण समर्पण मांगती है, इसलिए असाधारण त्याग मांगती है। किसी कलाकार की कलायात्रा सहसा रुक जाए, इससे बड़ी पीड़ा क्या हो.......।

अक्सर देखा जाता है कि जैसे जैसे कलाकारों को प्रसिद्धि मिलती है, वह लोगों से दूर होने लगते हैं। उनके प्रशंसक उनसे मिल नहीं पाते। लेकिन, उनके व्यक्तित्व में लोक से जुड़ने की बहुत आतुरता है। जैसे कोई गीत एक ने शुरू किया, उसे सब मिलकर गाते हैं। वैसे ही मालिनी जी लोक से जुड़कर रहने में विश्वास करती हैं। यह उनके इस पुस्तक से भी झलकता है। 
परंपरा से तात्पर्य एक सांस्कृतिक व्यवहार से है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया गया है, आखिर सभी परंपराएं समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए ही तो बनी थी, ये परंपराएं समाज ही निर्मित करता आया है, समय अवसर अनुकूल। परंपराएं बदलनी भी चाहिए, सम्मान पर कन्या का अधिकार है।
 

इस तरह वह नारी के दर्द को भी महसूस करती हैं। साथ ही, स्त्री सशक्तिकरण का पुरजोर समर्थन करती हैं। वह प्रगतिशील सोच से भी लैस हैं। वह परंपरा में आधुनिकता सोच की व्याख्या करती हैं। यह उनकी लेखनी से झलकता है।
स्त्री का जीवन कर्तव्य और भावनाओं की गहरी नदी में काठ की नाव की सवारी है। किनारे तक पहंुचने पर पता चलता है कि जीवन बीत गया! कितनी बार महिला कलाकार को आलोचना, फब्तियां, सार्वजनिक ताने तोड़ देते हैं। 

आज के दशकों पहले ग्रामीण भारतीय समाज एक ऐसी संरचना थी, जिसमें स्त्रियां संकोच भरी मर्यादा में अपना जीवन जीती थीं। उनके भाव विरेचन के लिए सिनेमा, साहित्य, संगीत और प्रदर्शन कलाओं की उपलब्धता न के बराबर थी। कला में अपने जीवन को तलाशना उनके पास विकल्प के तौर पर था ही नहीं, अतः अपने जीवन को ही कलात्मक बनाकर स्वयं स्वांग रचकर, फिर स्वयं ही उसकी प्रेक्षक बनना उनके पास सबसे सहज साधन था। 

लेखिका मालिनी के पहले गुरु मशहूर कलाकार उस्ताद राहत अली थे। उनके सान्निध्य और सीखने के सिलसिले का एक अध्याय में उन्होंने बहुत सुघड़ता से समेटा है। वह गुरुओं और पूर्वजों के आशीर्वाद में विश्वास करतीं हैं। इसे वह बार बार स्वीकार करती हैं। इसी क्रम में वह लिखती हैं कि अपने उस्ताद के साथ, उनके उस्ताद के सामने अपनी तालीम की परीक्षा देने गई थी, झोली में बहुत कुछ लेकर लौटी। जिंदगी में किस्मत, काबिलियत, हुनर सब कुछ तभी चमकते हैं, जब उनमें दुआएं असर करती हैं। वरना कितने आए, कितने गए और कितने आएंगें अभी.......।

पुस्तक के अंतिम अध्याय में उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को निभाते हुए, बहुत सुंदर लिखा है कि प्रत्येक पर्व, त्योहार पर जब कथा कही जाएगी तो कथा समापन में स्वस्तिवाचन सभी के सुख की कामना से होगा। भारतीय जीवन दर्शन परंपरा के रूप में कैसे आया, तीज, त्योहार, व्रत की कथाएं उसका अनुपम उदाहरण है। सभी का मंगल हो, सभी सानंद रहें, सभी के क्षेम की उद्दीप्त भावना वाले समाज में अनायास ही नहीं कि हर पर्व, पूजा और लोक कथा का समापन इसी मंगल कामना के साथ होता है कि, जैसे उनके दिन बहुरैं, वैसे सबके दिन बहूरें। यही भारतीय संस्कृति का मूल चिंतन है। 

इस किताब में कुछ 27 अध्याय हैं। हर अध्याय में एक अनोखी कथा है। लेखनी में प्रवाह है, कथ्य और कथन में सहजता है। यह पुस्तक हर उम्र के पाठक के लिए है। यह पुस्तक पढ़ने वाले को बहुत सी परंपरा-रीति रिवाजों का ज्ञान भी देता है। यह इसकी विशेषता है। इस संदर्भ में, लेखिका मालिनी अवस्थी लिखती हैं कि यह जो आपके हाथ में है, एक किताब नहीं, मेरे मन का प्रवाह है, अपने आस पास के परिवेश के देखे, जिए, अनुभूत लोकचित्र हैं, लोक से प्रेरित अभिव्यक्ति है, लोक है, यानी आप सभी का है। 




Wednesday, May 14, 2025

shashiprabha: #आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी----गुंजायमान संध्या ...

shashiprabha: #आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी----गुंजायमान संध्या ...:                                                                                                                 #आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवार...

#आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी----गुंजायमान संध्या कवि जयदेव की अष्टपदी से

                                                           
                                                    #आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी

                                             गुंजायमान संध्या  कवि जयदेव की अष्टपदी से 


                                                  
पिछले दिनों जयदेव उत्सव का आयोजन संचारी फाउंडेशन की ओर से किया गया। यह दो दिवसीय आयोजन एक और दो मई 2025 को था। इंडिया हैबिटैट सेंटर में आयोजित उत्सव में कवि जयदेव की अष्टपदी को उड़ीसा की परंपरागत शास्त्रीय संगीत और ओडिसी नृत्य के माध्यम से पेश किया गया। इस उत्सव की आयोजिका ओडिसी नृत्यांगना कविता द्विवेदी वर्षों से यह आयोजन राजधानी में करती रही हैं। शुरुआत में यह तीन दिनों का आयोजन हुआ करता था। इसमें जयदेव के साहित्य और संगीत पर विशद चर्चा विद्वानों और कलाकारों द्वारा किया जाता था। लेकिन, कुछ आर्थिक दिक्कतों के कारण वह कई वर्षों से इसका आयोजन नहीं कर पाईं। इस वर्ष एक बार से जयदेव उत्सव का आयोजन कर नई पहल की है। उनके इस पहल का कलाकारों ने खुले मन से स्वागत किया। यह एक शुभ संकेत माना जा सकता है। 



जयदेव उत्सव की पहली संध्या में ओडिसा की गायिका संगीता ने कई अष्टपदियों को विभिन्न रागों में पिरोया। उन्होंने राग गुणकरि या शुद्ध धनाश्री में अष्टपदी ‘सखि हे केसिए मथनमुदारम्‘, राग देसवरणी व रूपक ताल में अष्टपदी ‘तव विरहे वनमाली‘ और राग रामकिरि में अष्टपदी चंदन चर्चित नील कलेवर को पेश किया। उन्होंने खुली और मधुर आवाज में अष्टपदियों को गाकर एक सुंदर शुरूआत की। दूसरी पेशकश ओडिसी नृत्यांगना कविता द्विवेदी की थी। उन्होंने अभिनय से पूर्ण नृत्य पेश किया। कविता और कृष्ण के विरह भावों को बहुत परिपक्वता के साथ किया। इसके लिए अष्टपदी ‘निंदति चंदनम इंदु किरणम निंदति देव अधीरं‘ का चयन किया गया था। यह राग सिंधु काफी और एक ताली में निबद्ध था। मोहिनीअट्टम नृत्यांगना चित्रा सुकुमारन ने राधिका के भावों को विवेचित किया। उन्होंने अष्टपदी ‘सखी हे केसिहे मथनमुदारम् भावों को दर्शाया। यह राग शुद्ध सारंग में निबद्ध थी। 

कथक नृत्यांगना संगीता चटर्जी को अष्टपदी पर नृत्य करते देखना मोहक लगा। कथक नृत्य में इस तरह के प्रयास आजकल युवा कलाकारों में कम ही देखने को मिलता है। इस नजरिए से कथक नृत्यांगना ने बैठकी भाव के जरिए राधा और कृष्ण के भावों को निरूपित किया। अष्टपदी ‘ललित लवंग लता परिशीलन‘ में बसंत ऋतु में राधा और कृष्ण में मधुरिम मिलन के भावों को पूरी कोमलता और मधुरता से संगीता ने दर्शाया। यह अष्टपदी राग बसंत और तीन ताल में निबद्ध थी। वहीं दूसरी अष्टपदी ‘कुरु यदुनंदन चंदन शिशिरे‘ थी। 

जयदेव उत्सव की दूसरी संध्या में गायक प्रशांत बेहरा ने अष्टपदियों को सुरों में पिरोया। उन्होंने गायन की शुरुआत जगन्नाथ अष्टकम से किया। उन्होंने राग भैरवी और जती ताल में अष्टपदी ‘याहि माधव याहि केशव‘ को गाया। दूसरी अष्टपदी राम मिश्र खमाज और एक ताली में निबद्ध थी। ‘श्रीता कमला कुचा मंडला हरि‘ को मधुरता से गाया। गायक प्रशांत बेहरा लगभग बीस वर्षों से राजधानी दिल्ली में ओडिसी नृत्यांगनाओं के साथ संगत करते रहे हैं। अब यह कला जगत में एक पहचाना चेहरा बन गया है। उनकी गायकी मधुर और अदायगीपूर्ण है।  
                                           

भरतनाट्यम नृत्यांगना रागिनी चंद्रशेखर ने मोहक नृत्य पेश किया। उन्होंने कमाल का नृत्य पेश किया। उनके नृत्य में आंगिक और मुखाभिनय के साथ-साथ आंखों के भावों का सुंदर समायोजन दिखा। उन्होंने कम प्रचलित अष्टपदियों का चयन किया था। पहली अष्टपदी ‘किम करिस्यति किम दृश्यति‘ थी। यह राग हमीर कल्याणी और आदि ताल में निबद्ध थी। दूसरी अष्टपदी ‘किशलय शयनम तले कुरु कमिनी‘ थी। यह राग द्विजावंती और मिश्र चापू में निबद्ध थी। राधा और कृष्ण के एक एक भाव को रागिनी ने बहुत बारीकियों से पेशकर दर्शकों को बांध लिया। 

जयदेव उत्सव का समापन ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव के नृत्य से हुआ। उन्होंने देवप्रसाद शैली का अनुसरण करते हुए, अभिनय से पगा नृत्य पेश किया। उनकी पहली पेशकश प्रोषितभर्तृका नायिका थी। उनका नृत्य अष्टपदी-‘विहरति वने राधा साधारणप्रणये‘ पर आधारित थी। यह रचना राग मिश्र काफी और जती ताल में निबद्ध थी। दूसरी प्रस्तुति अष्टपदी ‘रती सुख सारे गतम् अभिसारे‘ थी। इसमें वासकसज्जा नायिका के भावों को दर्शाया। 




Friday, May 9, 2025

shashiprabha: #आज के कलाकार @शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: #आज के कलाकार @शशिप्रभा तिवारी: #आज के कलाकार @शशिप्रभा तिवारी ...

#आज के कलाकार @शशिप्रभा तिवारी



#आज के कलाकार @शशिप्रभा तिवारी

मंगलोत्सव में गुरु का स्मरण

                                                


मंगलोत्सव का आयोजन पिछले दिनों इंडिया हैबिटैट सेंटर में किया गया। यह आयोजन बनारस घराने की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विदुषी गिरिजा देवी की स्मृति में था। गिरिजा दर्शन ट्रस्ट की ओर से गिरिजा देवी के 96वें जन्म दिवस पर यह समारोह आयोजित था।

आठ मई की शाम कुछ बोझिल सी थी। एक तरफ देश की सीमाओं पर तनाव का माहौल बना हुआ था। और लगातार पत्रकार मित्रों के संदेश आ रहे थे। जिससे हर किसी का थोड़े से तनाव में आ जाना लाजिमी था। इन सब के बावजूद, कलाकारों का संकल्प नमन करने योग्य है, क्योंकि आयोजिका शास्त्रीय गायिका और अप्पा जी की शिष्या सुनंदा शर्मा ने कार्यक्रम में शिरकत भी किया और आयोजन को सफलतापूर्वक संपन्न करवाया। शायद, इसलिए कला के उपासक भारतीय संस्कृति में वाग्देवी के आराधक श्रेष्ठ माने जाते हैं। वैसे भी भारत में तो युद्ध से पहले भी रणभेरी, नगाड़े, शंख आदि बजाने की परंपरा है। वास्तव में, यह नाद अराधन भी राष्ट्र अराधन का ही रूप है। अतः इस आयोजन में भाग लेने वाले कलाकारों के साथ-साथ सभागार में उपस्थित हर श्रोता वंदनीय है।

शास्त्रीय गायिका सुनंदा शर्मा ने अपनी गुरु को याद करते हुए, कहा कि अप्पा जी सिर्फ मेरी गुरु नहीं थीं, वे मेरी संगीत और जीवन यात्रा की प्रेरणा थीं। मंगलोत्सव का यह आयोजन मेरे लिए उनको एक श्रद्धांजलि है। साथ ही यह वादा भी कि मैं उनकी परंपरा को पूरे समर्पण से आगे बढाऊंगी।


पठानकोट में जन्मी और पली बढ़ी गायिका सुनंदा शर्मा ने अपने गुरु के साथ लंबा समय बीताया। वह बनारस में रहकर गुरु शिष्य परंपरा में संगीत की शिक्षा लीं, बल्कि बनारस की संस्कृति-संस्कारों को अपनाया है। इसलिए, उनके संगीत में सिर्फ बनारस घराने के सुर ही नहीं हैं, बल्कि बनारसीपन भी झलकता है। बहरहाल, समारोह में वह जुगलबंदी पेश करने को उपस्थित थीं। उनके साथ बांसुरीवादक रूपक कुलकर्णी थे। दोनों ही कलाकार एकल प्रस्तुति के लिए जाने जाते हैं। लेकिन, सुनंदा शर्मा और रूपक कुलकर्णी ने बहुत ही संतुलित और संयमित संगीत पेश किया। संगीत में मुख्य कलाकार को संगत करना एक बात होती है और जुगलबंदी विशेष हो जाती है। इस प्रस्तुति का आगाज, राग यमन कल्याण के आलाप से हुआ। दोनों ही कलाकारों ने सांध्यकालीन राग के आलाप में तीव्र मध्यम और अन्य शुद्ध स्वरों का प्रयोग मोहक था। इसी क्रम में सुनंदा ने मध्य लय में रचना ‘न जानू कैसी प्रीत‘ को सुरों में पिरोया। इसके बरक्स बांसुरी पर रूपक कुलकर्णी में लयकारी और तानों को पेश किया। तीन ताल में निबद्ध बंदिश की बढ़त में बोल और आकार की तानों का प्रयोग भी सरस था। अगले अंश में गायिका सुनंदा शर्मा ने मिश्र खमाज में ठुमरी ‘इतनी अरज मान मान ले‘ गाया। यह जत ताल में थी। अंत में, अप्पा जी की मशहूर कजरी ‘कहनवा मान ओ राधा रानी‘ को सुरों में पिरोया। तबले पर पंडित मिथिलेश झा और हारमोनियम पर डाॅ सुमित मिश्रा ने रसमय संगत किया। कलाकारों की इस प्रस्तुति ने अच्छा समां बांधा।






अगले कलाकार वरिष्ठ शास्त्रीय गायक पंडित साजन मिश्रा और उनके शिष्य स्वरांश मिश्रा थे। उन्होंने राग बागेश्वरी पेश की। उन्होंने राग बागेश्वरी के आलाप से गायन आरंभ करने के बाद, विलंबित लय की बंदिश को सुरों में पिरोया। बंदिश के बोल थे-‘रे कौन गत भई‘। यह एक ताल में निबद्ध थी। उन्होंने मध्य लय की बंदिश ‘एरी मैं कैसे घर जाऊं‘ को सुरों में ढाला। उन्होंने पंडित राजन मिश्रा रचित बंदिश ‘जमुना जल भरन न देत कन्हाई‘ को पेश किया। उन्होंने तराने को भी गाया। उनके साथ तबले पर पंडित विनोद लेले और हारमोनियम पर डाॅ विनय मिश्रा थे।

कार्यक्रम में गाने से पूर्व पंडित साजन मिश्र ने कहा कि आज का कार्यक्रम गुरु की याद में सुनंदा जी कर रही हैं। अप्पा जी बनारस घराने की वरिष्ठ कलाकार थीं। मेरा बचपन से उनसे तालुक था। यह अद्भुत संयोग है कि उनको समर्पित सुबह बनारस में एक कार्यक्रम में गाया और शाम को भी उन्हीं को समर्पित उत्सव में गा रहा हूं।

Tuesday, May 6, 2025

shashiprabha: #आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी-------- गुरु मौन प्...

shashiprabha: #आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी-------- गुरु मौन प्...:   #आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी                                                          गुरु मौन प्रकाश है-ज्योति श्रीवास्तव पिछले दिनों ज...

#आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी-------- गुरु मौन प्रकाश है-ज्योति श्रीवास्तव

 



#आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी

                                                         गुरु मौन प्रकाश है-ज्योति श्रीवास्तव




पिछले दिनों जयदेव उत्सव का आयोजन संचारी फाउंडेशन की ओर से किया गया। यह दो दिवसीय आयोजन एक और दो मई 2025 कां था। इंडिया हैबिटैट सेंटर में आयोजित उत्सव का समापन ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव के नृत्य से हुआ। उन्होंने देवप्रसाद शैली का अनुसरण करते हुए, अभिनय से पगा नृत्य पेश किया। उनकी पहली पेशकश प्रोषितभर्तृका नायिका थी। उनका नृत्य अष्टपदी-‘विहरति वने राधा साधारणप्रणये‘ पर आधारित थी। यह रचना राग मिश्र काफी और जती ताल में निबद्ध थी। दूसरी प्रस्तुति अष्टपदी ‘रती सुख सारे गतम् अभिसारे‘ थी। इसमें वासकसज्जा नायिका के भावों को दर्शाया।
ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव देश की जानीमानी ओडिसी नृत्यांगना हैं। उन्होंने गुरु दुर्गा चरण रणबीर और गुरु श्रीनाथ राउत की नृत्य रचनाओं को परंपरागत अंदाज में पेश किया। उन्होंने अभिनय में नायिका राधा और नायक कृष्ण के भावों को बहुत परिपक्वता और सुघड़ता से निभाया। उन्होंने नेत्रों, मुख और हस्तकों के जरिए एक एक बारीकी को खूबसूरती से उकेरा। अष्टपदी में राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन है। देवप्रसाद ओडिसी नृत्य शैली में गुरुओं का मानना है कि राधा और कृष्ण दोनों एक हैं। राधा प्रकृति के हर अंश में कृष्ण का दर्शन करती है। नायिका राधा का विशेष प्रकृति प्रेम ही नृत्यांगना ज्योति के अभिनय में रूपायित होता दिखा। उनका अभिनय स्थूल से सूक्ष्म या द्वैत से अद्वैत को परिभाषित करता प्रतीत हुआ। इसमें नृत्य, गुरु और कला के प्रति समर्पण भाव का योगदान है, क्योंकि लंबे समय तक अपने नृृत्य कला को संजोकर रखना कलाकार के लिए एक चुनौती होती है। यह लगातार अभ्यास और कला के प्रति विशेष लगाव से ही संभव है। वास्तव में, अभिनय की सूक्ष्मता में अपने गुरु की शैली की शुद्धता कायम रखना आज के समय कलाकारों के लिए बड़ी जिम्मेदारी है। यही उनकी विशेषता भी है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों उनके गुरु दुर्गा चरण रणबीर पùश्री से सम्मानित हुए। गुरु को सम्मान मिलना एक शिष्य के लिए गौरव का विषय होता है। इस बात को ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव भी मानती हैं। और इसी मद्देनजर उन्होंने गुरु के सम्मान में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रात्री भोज का आयोजन किया। इस सम्मान मिलन समारोह में राजधानी दिल्ली की कई नृत्यांगनाएं शामिल हुईं। इस अवसर पर गुरु दुर्गा चरण रणबीर, उनकी पत्नी और नृत्यांगना पुत्री भी उपस्थित थे।



अपने गुरु के बारे में ज्योति कहती हैं कि गुरु जी के लिए ज्ञान सर्वोपरि रहा है। नृत्य के सैद्धांतिक, प्रायोगिक और रचनात्मक पक्ष सभी में उनका ज्ञान अद्वितीय है। वह संपूर्ण कला मर्मज्ञ हैं। मैं बचपन से ही उनसे नृत्य सीखी और आज भी उनके सान्निध्य में हूं। मैं अपनी सीनियर फेलोशिप का शोधकार्य उन्हीं के मार्ग दर्शन में पूरा कर रही हूं। मेरा सौभाग्य है कि गुरु मां का प्रेम मेरे प्रति अगाध है। मेरे पिता के न रहने के बाद पिता का प्यार और स्नेह मुझे गुरु जी से ही मिला।
ओडिसी नृत्यांगना ज्योति आगे कहती हैं कि गुरु के ज्ञान से पूरा जगत प्रकाशित होता है। आज मैं जो कुछ भी हूं, उसका पूरा श्रेय गुरु जी को ही जाता है। गुरु कृपा कई जन्मों के सुकर्म का फल होता है। हम अपनी संतान के जन्म के साथ ही उसके पालन पोषण में अपना सर्वस्व न्योछावर करते हैं। लेकिन कला जगत में गुरु को तो हम जानने के बाद ही उनसे जुड़ते हैं। उनको स्वीकार करते हैं। गुरु का सम्मान हम नहीं करते, तो यह कला के साथ बेईमानी है। गुरु के प्रति प्रेम, गुरु की सीख, गुरु की डांट, उनके द्वारा दी गई सजा, सब कुछ गुरु का प्रसाद है। उसे इसी रूप में हम ग्रहण करते हैं। तभी गुरु शिष्य का संबंध प्रगाढ़ बन पाता है। गुरु से जुड़कर ही हम कला के पथ के पथिक बन पाते हैं क्योंकि हमारी कलाएं अध्यात्मिक हैं। इसे अपनाने से पहले हमें भक्ति और अध्यात्म भाव से खुद को परिपूर्ण करना जरूरी है। गुरु दीपक की तरह है। दीपक कुछ बोलता नहीं है। दीपक मौन रहता है, उसका प्रकाश ही उसका परिचय देता है। सफल व्यक्ति कभी खुद को उजागर नहीं करते, बल्कि उनकी उपलब्धियां उन्हें उजागर करती हैं। गुण या कला या हुनर ही गुरु का प्रकाश है, जो शिष्यों के भी ज्योतिरूप में प्रकाशित होता है।