#आज के कलाकार@शशिप्रभा तिवारी
चर्चित पुस्तक ‘चंदन किवाड़-संस्कृति के आंगन में खुलती है!
प्रतिष्ठित गायिका मालिनी अवस्थी जी की पुस्तक ‘चंदन किवाड़ गुइयां दरवजवा मैं ठाढ़ी रहू‘ को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। पुस्तक का कलेवर और इन बाॅक्सिंग बहुत सुंदर है। इस पुस्तक के लिए कई महान हस्तियों ने स्वस्तिकामना की है। इनमें लेखिका मालिनी अवस्थी को कहानीकार सूर्यबाला, लेखक यतींद्र मिश्र, बांसुरीवादक पंडित हरिप्रसाद चैरसिया, हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक पंडित साजन मिश्र, लेखक डाॅ विक्रम संपत जैसे महानुभावों का आशीर्वचन मिला है। सभी ने बहुत संुदरता और सरलता से मालिनी जी के व्यक्तित्व, कृतित्व और कला की सराहना की है।
इस पुस्तक के आरंभ में ‘मेरी बात‘ के जरिए मालिनी अवस्थी जी ने लिखा है कि अपने लोकगीतों की पोटली थामे, मैं गांव गांव घूमी हूं, कस्बे, नगर, महानगर, देस परदेस, सता समन्दर पार! कलाकार का जीवन यायावर सा होता है। आज यहां, तो कल वहां!
यह एक सहज यथार्थ है। यह बात सच है और इसी तरह पूरी किताब में सहजता की खुशबू और शीतलता की अनुभूति है। इस किताब को पढ़ते हुए, मालिनी जी की जीवन यात्रा, उनके संघर्ष, जिसे वह कभी संघर्ष के तौर पर बयान नहीं करती हैं। सहज कथ्य के तौर पर लिखती हैं। पर आमतौर पर यह स्त्री के लिए एक तरह का संघर्ष ही होता है। क्योंकि, परिवार, रिश्ते, बच्चे, करियर, यात्राएं, सफलता और बहुत कुछ। उनकी इस लेखनी में कहीं भी बड़बोलापन या ग्लैमर नहीं है। उन्होंने बहुत स्पष्ट तरीके से अपनी बातों को रखा है। जैसे वह आज के सोशल मीडिया में कभी कार्यक्रम पेश करते, कभी लोगों से मिलते, कभी यात्रा करतीं नजर आतीं हैं, वैसे ही सरल तरीके से उन्होंने अपनी बातों को शब्दों में पिरोया है।
यह किताब को पढ़ते हुए, कभी कभी यह आत्मकथ्यात्मक लगी तो कभी संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं को सहेजती हुई, ग्रंथ सी लगी। यह उनकी वर्षों की कला यात्रा और अनुभव का एक संग्रह भी लगा। उन्होंने सबसे बड़ी बात की पुस्तक लिखने में जल्दीबाजी नहीं की है। उन्होंने उम्र और जीवन के अनुभव की परिपक्वता को जीते हुए, दास्तानों को जोड़ा है। इसलिए, इसमें व्यक्ति के इर्द गिर्द का परिवेश बहुत सघनता से शामिल हुआ है। इसलिए, किताब को एक बार हाथ में लेने के बाद रोमांच इस तरह हावी हो जाता है कि पाठक इसे पूरा पढ़ लेना चाहता है। क्योंकि अध्याय बहुत लंबे नहीं हैं। पर उनमें दर्ज की गई बातें बहुत गहरी हैं। जो पाठक को संवेदनाओं से जोड़ती है।
लेखिका मालिनी लिखती हैं कि कुछ भी कहिए, ससुराल का आनंद अलग ही होता है। ससुराल की अपनी मर्यादा है, शिष्टाचार है। जीवन सुख से जीने का महामंत्र यही है कि इन वर्जनाओं को बंधन नहीं, संस्कार समझ अंगीकृत करें, मन की सारी उलझी गांठें बहुत सरलता से सुलझ जाएंगीं।
पुस्तक को पढ़ते हुए, भारतीय कला, लोक, लोक कला, कलाकार, गुरु, गुरु की भूमिका व दायित्व, परंपरा, कला के उद्देश्य, कलाकारों के संघर्ष, लोक परंपरा, पास-पड़ोस, अतिथियों, संबंधों को निभाने का सलीका, हर चीज से पाठक जुड़ता जाता है। वह अपने गुरु के बारे में बताती हैं। अपनी मां और पिता के बारे में चर्चा करती हैं। लोक जीवन में परंपराओं के महत्व की चर्चा करती हैं। उनके घर में काम करने वाले लोगों से भी पाठक जुड़ जाता है। इतना ही नहीं, हर प्रसंग को गीत या ठुमरी या दादरा या भजन से जिस तरह जोड़ा है। वह कला में भीतर तक वह स्वयं किस तरह भींगी हुई हैं, यह दर्शाता है।
वह लिखती हैं कि हमारा दर्शन ही है ‘सत्यं श्विम् संुदरम्‘ अर्थात् ‘सत्य सुंदर है और कल्याण‘। हमारा दर्शन, हमारी संस्कृति, हमारी कला, हमारा साहित्य, सभी में श्रृंगार बोध है, प्रेम श्रंृगार की अनिवार्यता है, अपने इष्ट प्रभु से प्रेम, पुरुष का स्त्री या स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम, श्रंृंगार वह सोपान है, जिस पर चलकर इन्सान अध्यात्म और भक्ति अंततः मुक्ति के द्वार तक पहंुुच जाता है।
कला और कलाकार के संदर्भ में वह लिखती हैं कि कला आध्यात्मिक आनंद की साधना का चरमोत्कर्ष है, कला आत्मा-परमात्मा का मिलन है, किंतु मेरी समझ में कला संप्रेषण की वह शक्ति है, जो लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे उदात्त ऊंचे स्थान पर पहुंचा दे, जहां मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। व्यक्ति ‘स्व‘ से निकलकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ के भाव से जुड़ सके।
एक अध्याय में वह लिखती हैं कि कला में प्रभु का वास है। इसलिए प्रत्येक कलाकार की कलायात्रा असाधारण परीक्षा मांगती है, असाधारण समर्पण मांगती है, इसलिए असाधारण त्याग मांगती है। किसी कलाकार की कलायात्रा सहसा रुक जाए, इससे बड़ी पीड़ा क्या हो.......।
अक्सर देखा जाता है कि जैसे जैसे कलाकारों को प्रसिद्धि मिलती है, वह लोगों से दूर होने लगते हैं। उनके प्रशंसक उनसे मिल नहीं पाते। लेकिन, उनके व्यक्तित्व में लोक से जुड़ने की बहुत आतुरता है। जैसे कोई गीत एक ने शुरू किया, उसे सब मिलकर गाते हैं। वैसे ही मालिनी जी लोक से जुड़कर रहने में विश्वास करती हैं। यह उनके इस पुस्तक से भी झलकता है।
परंपरा से तात्पर्य एक सांस्कृतिक व्यवहार से है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया गया है, आखिर सभी परंपराएं समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए ही तो बनी थी, ये परंपराएं समाज ही निर्मित करता आया है, समय अवसर अनुकूल। परंपराएं बदलनी भी चाहिए, सम्मान पर कन्या का अधिकार है।
इस तरह वह नारी के दर्द को भी महसूस करती हैं। साथ ही, स्त्री सशक्तिकरण का पुरजोर समर्थन करती हैं। वह प्रगतिशील सोच से भी लैस हैं। वह परंपरा में आधुनिकता सोच की व्याख्या करती हैं। यह उनकी लेखनी से झलकता है।
स्त्री का जीवन कर्तव्य और भावनाओं की गहरी नदी में काठ की नाव की सवारी है। किनारे तक पहंुचने पर पता चलता है कि जीवन बीत गया! कितनी बार महिला कलाकार को आलोचना, फब्तियां, सार्वजनिक ताने तोड़ देते हैं।
आज के दशकों पहले ग्रामीण भारतीय समाज एक ऐसी संरचना थी, जिसमें स्त्रियां संकोच भरी मर्यादा में अपना जीवन जीती थीं। उनके भाव विरेचन के लिए सिनेमा, साहित्य, संगीत और प्रदर्शन कलाओं की उपलब्धता न के बराबर थी। कला में अपने जीवन को तलाशना उनके पास विकल्प के तौर पर था ही नहीं, अतः अपने जीवन को ही कलात्मक बनाकर स्वयं स्वांग रचकर, फिर स्वयं ही उसकी प्रेक्षक बनना उनके पास सबसे सहज साधन था।
लेखिका मालिनी के पहले गुरु मशहूर कलाकार उस्ताद राहत अली थे। उनके सान्निध्य और सीखने के सिलसिले का एक अध्याय में उन्होंने बहुत सुघड़ता से समेटा है। वह गुरुओं और पूर्वजों के आशीर्वाद में विश्वास करतीं हैं। इसे वह बार बार स्वीकार करती हैं। इसी क्रम में वह लिखती हैं कि अपने उस्ताद के साथ, उनके उस्ताद के सामने अपनी तालीम की परीक्षा देने गई थी, झोली में बहुत कुछ लेकर लौटी। जिंदगी में किस्मत, काबिलियत, हुनर सब कुछ तभी चमकते हैं, जब उनमें दुआएं असर करती हैं। वरना कितने आए, कितने गए और कितने आएंगें अभी.......।
पुस्तक के अंतिम अध्याय में उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को निभाते हुए, बहुत सुंदर लिखा है कि प्रत्येक पर्व, त्योहार पर जब कथा कही जाएगी तो कथा समापन में स्वस्तिवाचन सभी के सुख की कामना से होगा। भारतीय जीवन दर्शन परंपरा के रूप में कैसे आया, तीज, त्योहार, व्रत की कथाएं उसका अनुपम उदाहरण है। सभी का मंगल हो, सभी सानंद रहें, सभी के क्षेम की उद्दीप्त भावना वाले समाज में अनायास ही नहीं कि हर पर्व, पूजा और लोक कथा का समापन इसी मंगल कामना के साथ होता है कि, जैसे उनके दिन बहुरैं, वैसे सबके दिन बहूरें। यही भारतीय संस्कृति का मूल चिंतन है।
इस किताब में कुछ 27 अध्याय हैं। हर अध्याय में एक अनोखी कथा है। लेखनी में प्रवाह है, कथ्य और कथन में सहजता है। यह पुस्तक हर उम्र के पाठक के लिए है। यह पुस्तक पढ़ने वाले को बहुत सी परंपरा-रीति रिवाजों का ज्ञान भी देता है। यह इसकी विशेषता है। इस संदर्भ में, लेखिका मालिनी अवस्थी लिखती हैं कि यह जो आपके हाथ में है, एक किताब नहीं, मेरे मन का प्रवाह है, अपने आस पास के परिवेश के देखे, जिए, अनुभूत लोकचित्र हैं, लोक से प्रेरित अभिव्यक्ति है, लोक है, यानी आप सभी का है।