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Thursday, May 23, 2024

कबीर के दोहे की अमरता@शशिप्रभा तिवारी


                                                              कबीर के दोहे की अमरता

                                                               @शशिप्रभा तिवारी 


गौरी दिवाकर संस्कृति फाउंडेशन सर्वत्र नृत्यम की ओर से उत्सव-24 का आयोजन किया गया। इस उत्सव में गौरी दिवाकर की शिष्याओं ने नृत्य रचना कबीरा पेश किया। इस की परिकल्पना युवा कथक नृत्यांगना रिद्मा बग्गा ने किया था। 

राजधानी दिल्ली के श्रीराम सेंटर में आयोजित उत्सव में कबीरा की पेशकश प्रभावकारी और आकर्षक थी। वैसे तो अक्सर कई कलाकार कबीर के दोहे पर आधारित नृत्य प्रस्तुत कर चुके हैं। लेकिन, यह प्रस्तुति लीक से थोड़ी हटकर थी। नृत्य परिकल्पना रिद्मा बग्गा की जरूर थी, पर नृत्य पर कथक नृत्यांगना और गुरु अदिति मंगलदास की छाप स्पष्ट दिखी। क्योंकि उनकी शिष्या व नृत्यांगना गौरी दिवाकर उनके साथ लंबे समय तक जुड़ी रही हैं। पंडित बिरजू महाराज की नृत्य शैली की झलक भी बखूबी रूपायित हुई। नृत्य रचना को प्रभावी बनाने में संगीत के साथ-साथ प्रकाश प्रभाव का इस्तेमाल भी प्रशंसनीय था। मंच पर जब कोरियोग्राफी को प्रभावी बनाने में लाइट्स का प्रयोग अब काफी महत्वपूर्ण हो गया है। 

नृत्य रचना कबीरा में कबीर के दोहों को खयाल व ध्रुपद के अंदाज में गाया गया, जबकि कबीर के दर्शन की व्याख्या संवाद के जरिए की गई। लाइव म्यूजिक के साथ नृत्य प्रस्तुति का आगाज दोहे ‘घूंघट के पट खोल रे‘ से हुआ। समूह प्रस्तुति में कथक नृत्यांगना व गुरु गौरी दिवाकर की शिष्याओं ने कई तिहाइयों, परमेलू, गतों के जरिए इसे पिरोया। नृत्य के अंत में ‘बाजत अनहद ढोल रे‘ पर नाद के अनहद होने के अंदाज की प्रस्तुति मोहक लगी। 


  

अगले अंश में प्रेम की बात संवाद के जरिए बयान किया जाता है। प्रेम कहीं खो गया है। मात्र पे्रम ही बचता है। मनुष्य को प्रेम पाने के लिए खुद को खोना होगा। यह बात मर्मस्पर्शी थीं। वहीं कबीर के दोहे ‘तेरा मोरा मनवा कैसे एक होई‘ ‘अपना तो कोई नहीं सतगुरु केवट‘ को नृत्य में पिरोते हुए नृत्यांगनाओं ने आरोह-अवरोह की तिहाइयां, एक रचना में ‘ता-धा‘ का अंदाज और सवाल-जवाब पेश किया।

प्रेम भरोसा है, प्रेम विश्वास है। प्रेम में धोखा खा लेना पर धोखा न देने की बात अगले अंश में की गई। किशोर और बाल कलाकारों की यह प्रस्तुति आकर्षक थी। दोहा ‘इस घट अंदर बाग-बगीचे‘ का चयन किया गया था। 

ध्रुपद शैली में ध्रुपद गायक गुंदेचा बंधुओं ने कबीर की रचनाओं को गाया है। उसी की झलक दोहे ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया‘ में थी। गौरी की वरिष्ठ शिष्याओं बहुत संतुलित और गंभीर अंदाज में भावों को पेश किया। प्रस्तुति में चलन, गत निकास, टुकड़े और तिहाइयों का प्रयोग काफी सधा हुआ नजर आया। उन्होंने सोलह चक्करों का प्रयोग किया। अंत में कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर ने एकल नृत्य पेश किया। उन्होंने ‘मोको कहां ढंूढे रे बंदे‘ को पिरोया। उन्होंने बहुुत ठहराव के साथ शब्दों के अनुरूप भावों को दर्शाया। उन्होंने आंखों, हस्तकों और भंगिमाओं के माध्यम से भावों को दर्शाया। नृत्य को तिहाइयों, टुकड़े, गतों के जरिए विस्तार दिया। अंत में, तत्कार व चक्कर के साथ पैर के काम से नृत्य को विराम दिया, जो एक समापन के साथ नए आगाज का संदेश दे गया। और साथ में कबीर के दोहे की अमरता को भी बयान कर गया। 

     







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