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Friday, June 25, 2021
shashiprabha: मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील
shashiprabha: मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील: मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील इस बार हमने रूबरू में लेखक, कवि, यायावर, संस्कृतिकर्मी रा...
मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील
मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील
इस बार हमने रूबरू में लेखक, कवि, यायावर, संस्कृतिकर्मी राहुल चौधरी नील से बात की है। उनका जन्म बिजनौर में हुआ। युवा लेखक राहुल चौधरी ने देश-विदेश की यात्राएं की हैं। आपको घूमने और फोटोग्राफी में खास दिलचस्पी है। वह देश के अनछुए इमारतों और प्राकृतिक दृश्यों के चितेरे हैं। आईए, उनके इस सफर के हम लोग भी हमसफर बनते हैं-शशिप्रभा तिवारी
आपको पढ़ने-लिखने का शौक कैसे हुआ?
राहुल-मुझे बचपन से ही पढ़ने का शौक था। शायद, यह शौक दादाजी को देखकर जागा हो। क्योंकि मैंने देखा कि दादाजी के सिरहाने पर हमेशा कोई-न-कोई किताब होती थी। जब भी फुर्सत में होते थे, वह पढ़ते रहते थे। आल्हा-उदल की कहानियां विशेषकर बुंदेलखंड में लोकप्रिय रही हैं। वहां यह काफी लोकप्रिय भी है। मैं बताऊं कि आठवीं कक्षा से पहले ही मैं आल्हा-उदल की कहानियां पढ़ चुका था। क्योंकि दादाजी बहुत शौक से पढ़ते थे। मुझे याद है कि मैंने महाभारत को काव्यात्मक रूप में कई बार पढ़ा। हालांकि, अब मुझे उस लेखक का नाम विस्मृत हो चुका है। वह महाभारत काफी मोटे आकार की थी। इसके अलावा, धर्मवीर भारती जी की प्रसिद्ध गुनाहों का देवता भी मैं किशोरावस्था में पढ़ चुका था। उस समय इसे काॅलेज के छात्रों का गीता माना जाता था। इस तरह पढ़ने का शौक गजब का था।
सच तो यह है कि मेरा बचपन गांव में बीता है। गंाव का माहौल कैसा होता है? यह सभी जानते हैं। मेरे घर का माहौल जरा जुदा था। पिताजी वकील थे। उनकी हिंदी, इंग्लिश और उर्दू पर बहुत अच्छी पकड़ थी। वह उर्दू में लिखते भी थे। घर में मुझे खासतौर पर पढ़ने-लिखने का माहौल मिला। बारहवीं की पढ़ाई मैंने विज्ञान से की। पर इसके बाद, मुझे लगने लगा कि मैं आगे की पढ़ाई हिंदी साहित्य में करूं। हिंदी साहित्य में ही मास्टर्स किया। नौकरी के सिलसिले में सूर्या फाउण्डेशन से जुड़ा। यहां की लाइब्रेरी बहुत समृद्ध है। इस लाइब्रेरी में हजारों किताबों और ग्रंथों का संग्रह था। यहां भी मैं काम के अलावा, कोई न कोई किताब पढ़ने में ही समय गुजारता था।
आपने लिखने की शुरूआत की कैसे की?
राहुल-दरअसल, लिखने का शौक तो मुझे बाद मंे हुआ। कविताएं तो थोड़ी-थोड़ी लिखने की शुरूआत काॅलेज के दिनों में हुई। विधिवत रूप से लिखने की शुरूआत 2011 में हुई। मैंने खूब यात्राएं की हैं। मैं उन दिनों यात्रा पर ब्लाॅग लिखता था। जो काफी लोकप्रिय हुआ। उन्हीं दिनों एक काव्य संग्रह ‘ओस’ प्रकाशित हुआ। इसमें मैं, जानकी काॅलेज की प्रो संध्या जी, कवि चिराग जैन और कहानीकार विवेक मिश्र की कविताएं थीं। वह मेरी पहली किताब थी।
इसके बाद, मेरे एक मित्र ने प्रभात प्रकाशन के प्रभात जी से परिचय करवाया। उसी मित्र के कहने पर मेेरे ब्लाॅग को प्रभात जी ने किताब का स्वरूप दिया। फिर, मेरी दूसरी किताब ‘कोस कोस पर‘ आई। मेरे पास कहानियों का संग्रह था, जिसे माधव भान जी ने प्रकाशित किया। इसका नाम है-‘कुछ इधर की, कुछ उधर की‘। यह ‘रे माधव‘ प्रकाशन ने प्रकाशित किया। फिलहाल, मैं अगली किताब के काम मेें जुटा हुआ हूं। यह वाणी प्रकाशन के माध्यम से आने वाली है। यह भी यात्रा वृतांत का ही एक सार स्वरूप ‘पगडंडियां‘ के नाम से आ रहा है। इसमें देश के छह अनछुए ऐतिहासिक स्थलों के अनछुए पहलुओं को लेकर मैं पाठकों के सामने उपस्थित होऊंगा। कहानी संग्रह का अगला भाग भी ‘रे माधव‘ प्रकाशन से होगा।
लेखक को लिखने के लिए कुछ समय चुराना पड़ता है?
राहुल-एक लेखक को लिखने के लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है। आप बहुत तनाव में हैं, तो आप नहीं लिख पाएंगें। आप को लिखने के लिए समय चाहिए और आप दूसरे काम में उलझे हैं। तब भी लेखक को दिक्कत आती है। लेकिन, मेरे पास प्लस प्वाइंट रहा कि मैं जिस क्षेत्र में काम कर रहा हूं, वह भी कला और साहित्य से जुड़ा हुआ है। मुझे वही परिवेश मिलता रहा है, जो लिखने के लिए प्रेरित करता है।
काॅरपोरेट जगत मंे डायरेक्टर पद की नौकरी छोड़कर, मैं इस क्षेत्र में आया हूं। मैं अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं से जु़ड़ा तो मुझे लगा कि यहां कलाकारों-लोक कलाकारों के साथ काम करने की अपार संभावनाएं हैं। यहां भी एक प्रोफेशनलिज्म की जरूरत है। जिस तरह से कलाओं और कलाकारों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। उस नाते मुझे लगता कि यहां मैं कुछ बेहतर कर सकता हूं। क्योंकि कहीं न कहीं यह मेरे लेखन से भी जुड़ा हुआ है।
लिखने के लिए समय तो निकालना पड़ता है। यात्रा, मीटिंग्स और अन्य गतिविधियों की व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालना मुश्किल तो है। पर नामुमकिन नहीं है। वो कहते हैं कि छोटा बच्चा है। उसे भूख लगती है। पर उसकी पालन-पोषण करने वाली मां को भी भूख-प्यास लगती है। वह जोर मारती है कि नहीं अब सारा काम छोड़कर, बच्चे को खिलाना-पिलाना है। वैसे ही जब मन लिखने के लिए जोर मारता है, तब मैं रात भर जागकर काम करता हूं या सुबह सबसे पहले जागकर अपना काम करता हूं। घर से बाहर, यात्राओं के समय लिखने का बेहतर समय मिलता है।
पूर्वोत्तर की यात्राएं खूब की है। इस बारे में कुछ बताइए।
राहुल-घूमना तो बिना प्लान के ही मजा देती है। मैं पूर्वोत्तर भारत की यात्रा यादगार लगती है। पूर्वोत्तर की यात्रा करना मुझे हमेशा से भाता है। पूर्वोत्तर मंे पर्यटन की बहुत संभावना है। तवांग, नागालैंड की घाटियों, मेघालय, अरूणाचल में हर कण-कण उदारता से आपका स्वागत करता है। वहां चावल हर जगह मिल जाता है। मैं बहुत ज्यादा भोजन प्रेमी नहीं हूं। इसलिए मुझे यात्रा में परेशानी नहीं होती है। पूर्वोत्तर को लेकर लोगों बहुत से भ्रम हैं। यह भ्रम तभी टूटेगा जब लोग यात्राएं करेंगें। वहां भोजन या ठहरने की कोई दिक्कत नहीं होती है। पूर्वोत्तर के लोगों के मन में अपनी सभ्यता, परंपरा और संस्कृति के प्रति जो श्रद्धा-विश्वास है। जब भी याद करता हूं, उसके सामने मैं नतमस्तक हो जाता हूं।
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